1. “यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।” (गी. 4/7) अर्थात् जब धर्म की ग्लानि होती है, अधर्म या विधर्म बढ़ता है, तब मैं आता हूँ। धर्म की ग्लानि अर्थात् एकव्यापी भगवान को सर्वव्यापी बता देते हैं। जैन और वैदिक प्रक्रिया के अनुसार कलियुग के अंत में ही धर्म की ग्लानि होती है; क्योंकि कलियुग-अंत तक अनेक धर्म स्थापित हो जाते हैं और सब धर्म चौथे युग की चौथी अवस्था में तमोप्रधान बन जाते हैं; क्योंकि सृष्टि रूपी मकान या वृक्ष की हर चीज चतुर्युगी की तरह सत्त्व प्रधान, सत्त्व सामान्य, रजो और तामसी- इन 4 अवस्थाओं से अवश्य गुज़रती है।